दिलबहार को ढूंढता है दिल…*अब वो दिल बहार नहीं*
विशेष लेख : कमलज्योति सर जनसंपर्क कोरबा
नमस्ते कोरबा :- पहले जब आइसक्रीम की दुकानें कम थीं, न ज्यादा वेरायटी हुआ करती थी और न ही हर किसी के जेब में उतने पैसे होते थे कि हर कोई गिने-चुने आइसक्रीम के दुकानों में जाकर अपनी गर्मी को जीभ और गले के रास्ते दूर कर सकें…।
ऐसे वक्त में इस गली से उस गली और एक पारा से दूसरे पारा तक कभी भोंपू तो कभी घंटी की आवाज़ गूंजती थी..और हम और आप जब गर्मी की वजह से कमरे में कैद होते थे..तब सुनसान गलियों से एकबारगी सुनाई देती घण्टी या भोंपू की आवाजें हमें आज के जमाने के एयरकंडीशनर से आती ठंडी हवाएं जैसी अहसास करा देती थी..
और हम सब भी जैसे इन्हीं के लिए ही गर्मी के दिनों में कुछ पैसे जमा कर के रखते थे.. और छिपा के रखे पैसे ऐसे टटोल कर निकालते थे जैसे बचपन में पिताजी पैंट के जेब में से चार आने-आठ आने के सिक्के निकाल लेने के परमिशन दे देते और हम बहुत तलाश कर निकाल लेते थे…। गर्मी में स्वाद के साथ सुकून का अहसास कराने वाली इन कुल्फियों का आनन्द तो तब और भी आता था..
जब दो चार दोस्त साथ हो..जब कुल्फी जल्दी पिघलती हो और खाने की स्पीड बढ़ जाती थी…इस बीच दोस्त हो या अपने छोटे भाई-बहन..एक कुल्फियां एक दूसरे के जीभ का हिस्सा भी बन जाती थी…. बड़ा धक्का तब और लगता था जब कुल्फी अचानक से नीचे गिर जाती थी…और बस डंडी हाथ में रह जाती थी..तब की कुल्फियां कम कीमत में मिलने के साथ सिर्फ गर्मी के दिनों में ही गलियों में मिलती थी..
अब तो हर मौसम में कुल्फियों और आइसक्रीम के ठेले सड़कों पर सुबह से लेकर रात तक सजे हुए दिखते हैं.. भले ही इनमें बहुत वेरायटी और स्वाद है..लेकिन गर्मियों के दस्तक के साथ बस कुछ महीनों के लिए गली मुहल्लों में आने वाले उन कुल्फी वालों जैसी स्वाद “दिल बहार” नहीं है..