Thursday, November 21, 2024

समझौता

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समझौता

नमस्ते कोरबा :- आज से हम अपने दर्शकों के लिए एक नई शुरुआत कर रहे हैं, जिसमें आप पाएंगे अपनी खुद की स्वरचित रचना, जिसमें कविता,आलेख, लघुकथा और अपने आस पास हो रहे साहित्यिक, आध्यत्मिक और सामाजिक आयोजनों के समाचार रहेंगे,आज की पहली स्वरचित रचना हमें भेजी है एनटीपीसी में कार्यरत डॉ बामन चंद्र दीक्षित जी ने,

बालकोनी में बैठे सुबह सुबह चाय की चुस्की के साथ अखवार के पन्नों पर नज़र दौड़ा रहे थे विमल चौधुरी। नौकरी से अवकाश के बाद और बचा क्या है, बस यही खबरें, टीवी भी खोलो तो दिन भर वही, शाम को उसी पे बहस और अखबारें भी वही घिसी पिटी खबरों से लैस।चाय के प्याले की उष्माहत धीरे धीरे हवा में शामिल हो रहे थे, और हर एक घूंट के साथ चाय की अस्तित्व भी।

गमछा से चश्मा साफ कर निहारे वो। सड़क के उस तरफ एक बरगद का पेड़ न चाहते हुए भी खड़ा था, जीने के जिद्द पे शायद। घुटन भरी ज़िंदगी से त्रस्त हो चुका था वो, बार बार सड़क के मरम्मत, कभी बिजली की तार,कभी एयर टेल, बी एस एन एल, कभी जिओ के जाल का शिकार बने उसके टहनियाँ उनकी बिवसता बयाँ कर रहे थे।बहुत सारे घावों से उबरने का कोशिश साफ साफ नजर आ रहा था उसके खंडित कलेवरों से। कटे हुए टहनियों के सूखे जख्म को सहलाते हुए कुछ पत्ते उगते, टहनियों के आकार लेते फिर कट जाते।

जख्मों से निजात पाने की कोशिश दोहराती हुई जिंदगी चलती और चलती रहती। इस तरह शहरी ज़िंदगी के साथ समझौता कर लिया था शायद उसने।

बालकोनी की बायीं कोने में कुछ गमले सजे हुए थे,कुछ खिलखिला रहे थे और कुछ तिलमिला रहे थे। उनमें से एक चौड़े से गमले में एक बरगद का बोनसाई स्वस्थ दुरुस्त तंदरुस्त दिखने का प्रयास में कामयाब होता लग रहा था।पत्ते कुछ छोटे छोटे थे जरूर मगर हरे भरे। कई टहनियाँ इधर उधर फैली हुई थी। कुछ टहनियों से निकली लटकने

भी उस तन्हा नन्हा बरगद को संभालने के लिए गमले के सीमित अहदे में अपने हिस्से का ज़मीं में कब्ज़ा जमा चुके थे।

जड़ें भी सुसंयमित, धरती के अंदर तक समाने का ख्वाहिश खो चुके थे, मानो चादर देख पैर फैलाने का पाठ का विश्लेषण में माहिर हो चुके थे। टहनियाँ भी बाहें फैलाना भूल चुके थे। कट जाने का डर या फिर गमले में बोनसाई का ज़िंदगी की सच्चाई जो भी हो उसके साथ समझौता कर चुका उस बोनसाई अपना प्रतिविम्ब सा प्रतीत हो रहा था उनको।

कुर्सी में विमल चौधुरी, कभी सड़क के उस पर उस बरगद को, कभी गमले में उस बोनसाई को कभी खुद को निहारते थे।

……..याद आ गया अनायास वो दिसंबर का सुबह, जिस दिन वो भारतीय रेल में नौकरी के लिए घर छोड़े थे। बचपन में पिताजी का देहांत के बाद सारा परिवार का बोझ अपने कंधों पर लिए निकले थे और कभी वापस हो न पाये;घर छोड़े और बेघर हो गए। अपने घरौंदे को सजाते सजाते उजड़ा हुआ अस्तित्व का बेवस चेहरा उनके आँखों के सामने तरंगायित होने लगा।उस बरगद के तरह कई बार अपने तन से अपनी पसंदीदा टहनियों को अलग होते देखे , कभी परिवार जनों के द्वारा, कभी सामाजिक परिस्थिति या फिर कभी उन्हीं के द्वारा मजबूरियों के कारण।

फिर वो बस गए एक गमले में उस बोनसाई की तरह। जहां धरती की जगह गमले की मुठ्ठी भर जमीन उनका जीवन निर्धारण करने लगी।बाहें फैलाने की सामर्थ्य नहीं, पाव जमाने का संसाधन भी सीमित उस गमले के अंदर मुठ्ठी भर जमीन की तरह। कई एकड़ जमीन का मालिक आज स्कोयर फिट के साथ समझौता करने को मजबूर।आगे बढ़ने की इच्छाएं मर चुकी, और वापसी की आसार भी न के बाराबर। फिर भी अपने अहदे में टहल टहल कर चलने का रियाज करना पड़ता है, जीने का दिखावा करना पड़ता है, सड़क के उस पर उस बरगद या फिर गमले की इस बोन्साई की तरह।

डॉ बामन चंद्र दीक्षित

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