कोरबा नगर निगम के बैनरों पर मुस्कुराहट है, पर शहर की सड़कों पर दर्द, क्या यही विकास का नया चेहरा है?
नमस्ते कोरबा :- कोरबा नगर निगम के बैनर इन दिनों पूरे शहर में लहरा रहे हैं। छठ पूजा की शुभकामनाएँ देने वाले इन पोस्टरों में नेताओं के मुस्कुराते चेहरे हैं पर अफसोस इन चेहरों की रोशनी के नीचे शहर की सड़कों, नालियों और गलियों का अंधियारा साफ़ दिखता है। कभी नगर निगम का नाम सुनते ही लोगों के मन में सफाई,पानी, सड़क और जनसुविधाओं की छवि आती थी।
अब “नगर निगम” सुनते ही पोस्टर, फ्लेक्स और राजनीतिक चेहरों की याद आ जाती है। शहर का विकास अब बैनरों पर लिखा जा रहा है जमीनी हकीकत में नहीं। नगर निगम की पहचान एक “लोक संस्था”की है जो किसी दल से ऊपर नागरिकों के हित में काम करती है।
पर जब निगम के बैनरों में केवल एक पार्टी के नेताओं के चेहरे दिखाई देते हैं तो सवाल उठता है,क्या जनता के टैक्स से राजनीतिक प्रचार करना प्रशासनिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं है? नगर निगम का पैसा जनता की गाढ़ी कमाई है हर महीने जलकर, संपत्ति कर,ठेला टैक्स,व्यवसाय कर के रूप में नागरिक जो भुगतान करते हैं उसी से यह निगम चलता है।
तो फिर क्या नागरिकों को यह अधिकार नहीं कि वे पूछें,हमारे टैक्स से नेताओं की फोटो क्यों छप रही हैं?यह व्यंग्य नहीं सच्चाई है कि कोरबा की सड़कें खुद में गड्ढों की कहानी सुना रही हैं। स्ट्रीट लाइटें महीनों से बंद हैं, और सफाई व्यवस्था ऐसी कि कई मोहल्लों में नालों से दुर्गंध फैल रही है।
फिर भी नगर निगम का ध्यान बैनरों पर है क्योंकि शायद बैनर में दिखना जमीनी काम करने से आसान है। लोकतंत्र में सरकारी संस्थाओं का काम किसी एक दल के प्रचार का मंच नहीं बनना चाहिए। अगर निगम के बैनर और पोस्टरों के लिए जनता का पैसा खर्च किया जा रहा है तो यह सरकारी धन का दुरुपयोग है।
क्योंकि बैनर और पोस्टर केवल नेताओं की चमक दिखा रहे हैं सच्चा विकास नहीं। आदर्श यही होगा कि नगर निगम जनता की सेवा करे, नेताओं का नहीं। सड़कों, लाइटों और सफाई का काम पहले हो फिर चेहरों की चमक दिखाएँ। वरना जनता के बीच यह सवाल हमेशा बना रहेगा “क्या नगर निगम हमारा है या किसी पार्टी का प्रचार तंत्र?”







