पहली मोहब्बत के साइकिल वाले चक्कर,जब एक झलक हफ्ते भर की धड़कन बन जाती थी
नमस्ते कोरबा : शहर की सबसे पतली गली जिस पर एक पुराना पीला लैंपपोस्ट टेढ़ा होकर खड़ा था वहीं से शुरू होती थी उसकी लव स्टोरी। ना स्मार्टफोन थे, ना व्हाट्सऐप नोटिफिकेशन उस वक्त प्यार को किसी इंटरनेट पैक की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। बस एक जंग लगी साइकिल और धड़कनों का साहस ही काफी था।
हर दोपहर वह धीमी चाल से उस गली का चक्कर लगाता। हवा में उसका दिल उम्मीदें उड़ाता, जैसे हर झोंका उससे कह रहा हो“शायद आज दिख जाए।” गली की दीवारों पर चिपके पोस्टर बदले नहीं थे, पर उसके चेहरे पर हर चक्कर के साथ उम्मीद का नया पोस्टर लग जाता।
उधर वो…
छत की मुंडेर पर आधे परदे के पीछे से चुपके-चुपके झांकती। उसकी नज़र बस एक सेकंड रुक जाती एक सेकंड। और इतना भर ही उसके पूरे हफ्ते की बैटरी रीचार्ज कर देता था। उस एक पल में न कोई इमोजी था, न टाइपिंग का बबल… बस आँखों से लिखा सबसे साफ मैसेज।
उन दिनों में प्यार की भाषा आँखें बोलती थीं और जवाब हवा में हौले से लौटता था। कभी वो साइकिल रोककर टायर में हवा भरने का बहाना बनाता, ताकि दो मिनट और मिल सकें। कभी वो अपनी चोटी ठीक करने का नाटक करती, ताकि उसका चेहरा थोड़ी देर रोशनी में रहे। दोनों ही जानते थे कि ये छोटे-छोटे नाटक ही असली कहानी हैं वो मासूम, पवित्र पागलपन।
आज किसी को बताएँ तो यकीन नहीं होगा कि दो लाइनों की चैट की जगह उस वक्त एक नजर ही सबकुछ कह देती थी। ना ब्लू टिक, ना ‘लोकेशन ऑन’, ना ‘लास्ट सीन’। बस साइकिल के ब्रेक की चर्र-चर्र और दिल की धड़कनें यही उनका नेटवर्क था, यही उनका कनेक्शन।
और इसी तरह…
दिन महीनों में बदले, पर यह सच्चाई नहीं बदली,वो एक झलक… और वो एक साइकिल का चक्कर यही उनकी लव स्टोरी थी।
दिन बीतते गए। मोहल्ले के लोग आदतन उसे हर दिन उसी वक़्त उस गली में आते देखते कोई उसे पढ़ाई में लगे एक लड़के की तरह समझता, तो कोई बहाना ढूँढते हुए आवारा साइकिलवाले की तरह। पर असल वजह सिर्फ एक थी वो।
एक शाम मौसम में हल्की सी ठंडक थी। पर्वा जैसा आसमान, और हल्का गुलाबी सूरज ढल रहा था। वह साइकिल चलाते हुए गली में आया पर इस बार थोड़ा नर्वस। आज उसका दिल कुछ ज़्यादा ही जोर से धड़क रहा था। क्योंकि आज उसने तय किया था कि वो उसे कम से कम नमस्ते तो बोल ही देगा।
गली में पहुंचा ही था कि अचानक बिजली चली गई।पूरी गली अंधेरे में डूब गई। पीला लैंपपोस्ट भी बुझ गया जैसे किसी ने उसकी हिम्मत भी बंद कर दी हो।
लेकिन उसी अंधेरे में…
छत पर से उस बर्फ़ीली आवाज़ को उसने पहली बार सुना “तुम हर रोज़ आते हो?” वो चौंक गया। आवाज़ हल्की थी, पर उसके दिल में गूँजते ढोल जैसी। अंधेरा ऐसा था कि चेहरे नहीं दिख रहे थे, बस आवाज़… सिर्फ आवाज़।
“हाँ…”
उसने हकलाते हुए कहा, “बस… बस ऐसे ही… गली अच्छी लगती है।” वो जानता था कि ये सबसे बेवकूफी भरा जवाब है। वो हँस पड़ी वो हल्की, छलकती हँसी… जिसमें जैसे बरसों की दोस्ती का वादा छुपा था।
“गली के लिए? या किसी और वजह से?” उसने धीमे से पूछा। अब वो क्या जवाब देता? दिल में जितनी बातें थीं, उस वक्त सिर्फ एक वाक्य बाहर निकला “तुम्हारी वजह से।” अंधेरे में अचानक चुप्पी फैल गई।
कोई टाइपिंग इंडिकेटर नहीं था, कोई seen नहीं था।बस वो पल था… भरपूर, भारी, सांसों से भरा हुआ,कुछ देर बाद उस आवाज़ ने कहा “कल भी आना।” और इससे पहले कि वो कुछ कहता, बिजली वापस आ गई।फ्लिकर करती रोशनी में उसने छत की तरफ देखा, लेकिन वो गायब थी।
अगला दिन सबकुछ बदल गया
अगली दोपहर उसने साइकिल में तेल डालकर उसे चमका दिया। बाल सँवारे, पुरानी शर्ट प्रेस की, और मन में लाखों सवाल। गली पहुँचा, तो देखा वो इस बार छत पर नहीं थी। वो रुक गया। दिल डूबने लगा। शायद वो सिर्फ मज़ाक कर रही थी…या शायद वो किसी रिश्तेदार के घर चली गई…
वो वापस मुड़ ही रहा था कि अचानक वही आवाज़, इस बार ज़मीन से आई “इतनी जल्दी हार मान लेते हो?” वो चौंककर पीछे मुड़ा।
वो नीचे खड़ी थी थोड़ी शर्म से, थोड़ी मुस्कान से, और हाथ में छोटी सी चिट्ठी लिए। उसने चिट्ठी उसकी ओर बढ़ाई। वह इतनी घबराई हुई थी कि उसने नज़र तक नहीं उठाई। उस चिट्ठी में सिर्फ कुछ शब्द थे “मुझे भी तुमसे बात करना अच्छा लगता है।”
बस… वो पल उसके लिए पूरा ब्रह्मांड था। दो लाइनें…और उन्हीं दो लाइनों में भविष्य की सैकड़ों बातें, हज़ारों उम्मीदें, लाखों धड़कनें संजोई हुई थीं। धीरे-धीरे, बिना कहे सब कह देना,अब दोनों के बीच एक अनकहा रिश्ता बन गया था। कभी वो उसे छत पर किताब पढ़ते हुए दिखती, कभी वो नीचे से गुज़रता तो वो चुपके से उनपर फूल की पत्तियाँ गिरा देती,
कभी वो साइकिल के हैंडल पर छोटी टॉफी छोड़ जाती,कभी दोनों यूँ ही बेवजह एक-दूसरे को देख लेते…और समय पलभर के लिए ठहर जाता। गली के कुत्तों को भी इनका टाइम-टेबल याद हो गया था।स्कूल के बाद, शाम की हवा, और दोनों की मुस्कान,इसी से पूरी मोहल्ले की शाम रंगीन होती।
फिर वो दिन आया…
एक शाम उसने हिम्मत जुटाई “क्या तुम मेरे साथ साइकिल पर चलोगी? बस… गली का एक चक्कर?” वो कुछ देर चुप रही।उसने सोचा शायद वो मना कर दे।लेकिन उसने धीरे से कहा “दिल के चक्कर लगाते-लगाते… गली का चक्कर तो बनता है न?” उस दिन साइकिल सिर्फ साइकिल नहीं थीदुनिया की सबसे खूबसूरत रथ बन गई थी। उसके पीछे बैठी वो हवा में उड़ती बालों को रोकती, और वो मन ही मन दुनिया का सबसे खुश इंसान बन चुका था।
और कहानी यहीं खत्म नहीं होती…
ये वही दिन थे जब प्यार के लिए डेटा नहीं, बस दिल चाहिए था। जब एक नज़र में पूरी कहानी लिख जाती थी। जब चिट्ठी में दो शब्द लिखना, मैसेज के सौ इमोजी से ज्यादा भारी था। जब एक साइकिल, एक गली, एक छत और दो दिल किसी भी फिल्म से ज्यादा खूबसूरत कहानियाँ लिख देते थे।








