Friday, November 21, 2025

“कुछ प्रतिमाएँ सत्ता के उजाले में,बाकी उपेक्षा के अँधेरे में,क्या यही सम्मान है महापुरुषों का?”

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“कुछ प्रतिमाएँ सत्ता के उजाले में,बाकी उपेक्षा के अँधेरे में,क्या यही सम्मान है महापुरुषों का?”

नमस्ते कोरबा :- देश की आज़ादी, निर्माण और सामाजिक परिवर्तन में योगदान देने वाले महापुरुषों की मूर्तियाँ इन दिनों कोरबा शहर में प्रशासनिक उपेक्षा का प्रतीक बनती जा रही हैं। विडंबना यह है कि जिन्हें हम राष्ट्रनिर्माता मानकर चौक-चौराहों पर स्थापित करते हैं, वही प्रतिमाएँ कुछ ही दिनों बाद अंधेरे में डूबी मिलती हैं, मानो उनका सम्मान सिर्फ जयंती और पुण्यतिथि तक सीमित कर दिया गया हो।

अप्पू गार्डन के सामने अटल व्यावसायिक परिसर और एमपी नगर चौक पर पंडित दीनदयाल उपाध्याय की प्रतिमा रंगीन रोशनी में नहाती है, जबकि दूसरी ओर महाराणा प्रताप चौक में वीर महाराणा प्रताप की भव्य प्रतिमा स्ट्रीट लाइट की आधी-अधूरी दूधिया रोशनी में “कहीं धूप-कहीं छाँव” की तरह नजर आती है।

सबसे ज्यादा उपेक्षा तो बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा के आसपास देखने को मिलती है। घंटाघर ओपन थिएटर के प्रवेश द्वार पर स्थित यह प्रतिमा कभी चबूतरे पर चमकदार रोशनी से दमकती थी, लेकिन आज वहां एक टिमटिमाती बल्ब भी नसीब नहीं है। आसपास लगी दुकानों की एलईडी ही कुछ उजाला देती हैं।

इसी तरह सुभाष चौक में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा प्रशासनिक लापरवाही की गवाही देती है। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ का नारा देने वाले इस महानायक की प्रतिमा के चारों ओर न रोशनी है, न सज्जा। बगल में स्थित शहीद भगत सिंह और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की प्रतिमाएँ भी बिना रोशनी के बेनूर दिखती हैं। यहां लगाया गया वाटर-फाउंटेन भी लंबे समय से बंद है।

कोसाबाड़ी चौक पर लाल बहादुर शास्त्री की प्रतिमा एक किनारे पड़ी हुई प्रशासनिक उपेक्षा को उजागर करती है। स्थानीय लोगों के अनुसार यहां स्ट्रीट लाइट के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया गया है जो शास्त्री की सादगी और महानता के अनुरूप सम्मान दर्शाए।

लोगों का कहना है कि कुछ प्रतिमाओं को अत्यधिक रोशनी और सजावट दी जाती है, जबकि कई अन्य पूर्ण उपेक्षा का शिकार हैं। इसलिए असमानता को लेकर इस बात की चर्चा तेज है कि कहीं यह सजावट ‘सत्ता से जुड़े नामों’ पर अधिक केन्द्रित तो नहीं?

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के स्वप्नदृष्टा स्वर्गीय बिसाहूदास महंत के नाम पर बनाए गए उद्यान की हालत भी निराशाजनक है। हाई मास्ट लाइट होने के बावजूद क्षेत्र में उचित प्रकाश नहीं है। प्रतिमा सिर्फ आसपास के दुकानदारों की लाइटों के सहारे रोशन होती है। पास में लगी पानी की टंकी भी वर्षों से सूखी पड़ी है। उद्यान निजी प्रबंधन में होने के कारण जिम्मेदारी स्पष्ट नहीं है, पर उपेक्षा स्पष्ट है।

यह सवाल उचित है कि महापुरुषों का सम्मान राजनीतिक प्राथमिकताओं पर निर्भर क्यों हो? स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राष्ट्र निर्माता और समाज सुधारक चाहे किसी भी दल या विचारधारा से संबंधित हों सब एक समान सम्मान के पात्र हैं।

रोशनी की कमी सिर्फ तकनीकी समस्या नहीं, प्राथमिकताओं की राजनीति है। कुछ प्रतिमाएँ चमकें, ताकि संदेश जाए कि “ये हमारे हैं,” बाकी अंधेरे में ही रहें, क्योंकि वे शायद किसी ‘वोट समीकरण’ में फिट नहीं बैठते। महापुरुषों का सम्मान यदि सत्ता की पसंद-नापसंद पर निर्भर होने लगे, तो यह सिर्फ अंधेरों का मामला नहीं,विचारों के अंधेरे का संकेत है।

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